“अगर आप कभी रात के एक बजे शिवपुर के उस पुराने, वीरान सिविल हॉस्पिटल के पास से गुजरें… तो कानों में मरीज़ों की चीखें और स्ट्रेचर के पहियों की चरमराती आवाज़ें साफ सुनाई देंगी — लेकिन यकीन मानिए, वहाँ अब कोई नहीं रहता…”
मैं हूँ आरव, एक पत्रकार।
यह कहानी नहीं, हकीकत है — एक ऐसा अनुभव जिसने मेरी सोच, मेरा साहस और शायद मेरी आत्मा का एक हिस्सा हमेशा के लिए बदल दिया।
शुरुआत एक वीडियो से हुई…
यह सब तब शुरू हुआ जब मै इंस्टाग्राम स्क्रॉल कर रहा था और मेरी नज़र एक वायरल वीडियो पर पड़ी। उसमें कोई शख्स शिवपुर के उस बंद पड़े सिविल हॉस्पिटल के पास से गुजर रहा था, लेकिन पीछे कहीं से आवाज़े (चींखे ) सुनाई दे रही थी, इंसानी थी, मगर अजीब। … जैसे दर्द खुद बोल उठा हो!
मेरे अंदर की curiosity बड़ गई, और एक पत्रकार होने के नाते मैंने फैसला किया कि मैं खुद जाकर पता लगाऊंगा कि सच्चाई क्या है।
मैंने अपने दोस्त और कैमरामैन विशाल को साथ लिया और हम दोनों रात 12 बजे उस हॉस्पिटल पहुँचे।
हॉस्पिटल के बाहर
हॉस्पिटल को देख कर रूह काँप उठी। दरारों से भरी दीवारें, टूटी खिड़कियाँ, लोहे के जाले, और हर कोने से बदबू आ रही थी! लेकिन जो सबसे डरावना था — वो था सन्नाटा। एक ऐसा सन्नाटा जो चीखों से ज़्यादा डरावना था।
हमारे कदमों की आवाज़ ही हमारी हिम्मत को तोड़ रही थी। हमने टॉर्च जलाकर एक-एक कमरे को चेक करना शुरू किया।
हर दीवार मानो कुछ कहना चाहती थी। जैसे दर्द उन दीवारों में अब भी कैद हो।
ICU – जहाँ वक्त थम गया
हम धीरे-धीरे ओपीडी, जनरल वार्ड, फिर ICU की ओर बढ़े। हर कदम भारी लग रहा था। तभी… ICU का दरवाज़ा अपने आप चरमरा कर खुला। हमने एक-दूसरे को देखा — और फिर कदम बढ़ा दिए।
भीतर अंधेरा था, और तभी टॉर्च की रोशनी में एक सफेद परछाई उभरी — एक नर्स।
उसका यूनिफॉर्म खून से सना हुआ था। वो चुपचाप एक स्ट्रेचर धकेल रही थी। चाल बेहद धीमी… जैसे हर कदम उसके अंतिम क्षणों की पीड़ा दोहरा रहा हो।
तभी उसने पलट कर देखा।
उसकी आँखें लाल अंगारे जैसी, चेहरा जला हुआ, और होंठों से निकली बस एक चीख — “मुझे… बचा लो…”
आग, आत्माएँ और अधूरी कहानियाँ
अचानक ICU की दीवारें जलने लगीं। धुआं बढ़ता गया। हमारी सांसें रुक रहीं थीं, और तभी दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। हम फँस चुके थे।
फिर सामने प्रकट हुए एक बुज़ुर्ग डॉक्टर — एक आत्मा।
उनकी आँखों में गुस्सा नहीं, थकान थी। गहराई थी।
“यहाँ क्यों आए हो?” उन्होंने पूछा।
मैंने काँपती आवाज़ में जवाब दिया — “सच्चाई जानने…”
डॉक्टर बोले:
“हमें मरने से नहीं, भुला दिए जाने से डर लगता है। उस रात हॉस्पिटल मैनेजमेंट ने बाहर से ताले लगवा दिए थे। आग में घिरे हम… बाहर नहीं निकल सके। अब हर रात हम वही पीड़ा फिर से जीते हैं।”
मोक्ष – एक पत्रकार का वादा
मैंने उनकी ओर देखा। पहली बार, किसी आत्मा के लिए मेरा दिल भारी हो गया।
“मैं क्या कर सकता हूँ?”
“हमारी कहानी दुनिया तक पहुँचा दो… शायद तब हमें मुक्ति मिल जाए।”
अचानक, सब शांत हो गया।
दरवाज़ा खुल गया। हम दौड़ते हुए बाहर निकले।
जैसे ही गेट पार किया — पूरा हॉस्पिटल एक तेज़ सफेद रोशनी में चमक उठा… और फिर अंधेरे में डूब गया।
आज…
मैंने उस रात की रिकॉर्डिंग से एक डाक्यूमेंट्री बनाई – “शिवपुर की आख़िरी पुकार”।
वीडियो वायरल हुआ। लोगों ने देखा, महसूस किया। वहाँ अब एक स्मृति स्थल है। हर साल मोमबत्तियाँ जलाई जाती हैं, और प्रार्थना होती है उन आत्माओं की शांति के लिए।
और जब भी मैं उस तरफ से गुजरता हूँ… हवा में कोई कहता है:
“शुक्रिया…”
**”कुछ कहानियाँ डराने के लिए नहीं होतीं…
बल्कि उन रूहों की आवाज़ होती हैं, जिन्हें कभी सुना नहीं गया।”**


