“हर दरवाज़ा सिर्फ खुलने के लिए नहीं होता… कुछ दरवाज़े हमें कहीं और ले जाने के लिए खुलते हैं।”
दिल्ली के एक पुराने मोहल्ले में एक बड़ी-सी, मगर जर्जर कोठी थी। बाहर से आम दिखने वाली इस कोठी में एक दरवाज़ा ऐसा था जो आम नहीं था — पुराना लकड़ी का दरवाज़ा, जिसकी दरारों से वक़्त झांकता था। उसे छूते ही एक अजीब-सी ठंडी लहर महसूस होती थी… जैसे वो जिंदा हो।
ये कहानी मेरी बहन अवनि की है। या शायद मेरी भी।
शुरुआत
पापा का ट्रांसफर हुआ और मजबूरी में हमें ये कोठी किराए पर लेनी पड़ी। चारों तरफ पेड़ों से घिरी, ये जगह दिन में शांत लगती थी… लेकिन रात को ऐसा लगता जैसे दीवारें कुछ फुसफुसा रही हों।
पहली ही रात, ठीक 2:47 पर वो पुराना दरवाज़ा खुद-ब-खुद “चर्रर्र…” की आवाज़ के साथ खुल गया।
माँ-पापा ने सोचा हवा से होगा। लेकिन अगली रात भी… और उसके बाद हर रात… ठीक उसी वक़्त, वो दरवाज़ा खुलता रहा।
हमने ताला लगाया, कीलें ठोंकी, अलमारी लगा दी… लेकिन दरवाज़ा जैसे ज़िंदा था। वो हर बार खुलता।
सांसों में डर समा गया था
तीसरी रात, अवनि चीखते हुए उठी।
उसकी आंखें डरी हुई थीं। उसने काँपती आवाज़ में कहा,
“भाई… दरवाज़े के पास कोई था… एक लंबा काला साया… जिसकी आँखें नहीं थीं, लेकिन वो मुझे देख रहा था।”
मैंने सोचा ये सपना होगा।
लेकिन अगली सुबह, दीवार पर किसी ने नाखून से खुरचकर लिखा था —
“तुम आ चुके हो, अब वापस नहीं जा सकते…”
उस दरवाज़े के पीछे क्या था?
पड़ोस में एक बूढ़ी औरत रहती थी। हमने उससे पूछने की हिम्मत की।
उसने धीरे से कहा,
“इस कोठी का पिछला मालिक कहता था कि उस दरवाज़े के पीछे कोई दूसरी दुनिया है… जहाँ से हर रात कोई आता है। फिर एक दिन उसकी बीवी और बच्चा गायब हो गए। और कुछ ही दिन बाद… वो खुद भी।”
उसकी बातें सुनकर हमारी रूह काँप गई।
उस रात, हमने दरवाज़े के पास खटखटाने की आवाज़ सुनी… लेकिन, अंदर से।
सब कुछ बदल गया
माँ की तबियत बिगड़ने लगी। पापा गुमसुम हो गए। अवनि चुप रहने लगी। और मैं? मुझे ऐसा लगने लगा जैसे कोई मुझे नाम लेकर बुला रहा हो।
एक रात, मैंने दरवाज़े से कान लगाया…
“आ जाओ… सब यहीं हैं…”
उस आवाज़ में एक अजीब-सी मिठास थी… जैसे कोई अपना पुकार रहा हो।
आख़िरी कोशिश
हमने एक पंडित को बुलाया। उन्होंने पूरे घर में पूजा की। जैसे ही वो उस दरवाज़े के पास पहुँचे — अचानक दिया बुझ गया, और दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुल गया। और पंडित जी बेहोश हो गए।
होश आने पर बस इतना कहा:
“ये दरवाज़ा इस दुनिया का नहीं है। इसे खोलना… मौत को बुलाना है।”
उस रात… सबकुछ ख़त्म हो गया
मैं नींद में था। अचानक आँख खुली तो देखा — अवनि गायब थी। माँ-पापा के कमरे का दरवाज़ा खुला था। पूरा घर खाली था। और वो दरवाज़ा… खुला हुआ था। ज़मीन पर खून के निशान अंदर की ओर जा रहे थे।
मैं डरते-डरते दरवाज़े के पास गया। अंदर घना अंधेरा था… मगर वो मुझे बुला रहा था। मैं भाग गया।
उस रात मैंने वो घर हमेशा के लिए छोड़ दिया।
अब भी…
पाँच साल बीत गए हैं। लेकिन अब भी जब कभी रात के 2:47 पर आँख खुलती है… तो दिल जोर-जोर से धड़कने लगता है।
वो कोठी अब वीरान है। कोई वहां नहीं रहता।
पर कहते हैं…
हर रात वो दरवाज़ा अब भी खुलता है।
और जो एक बार उसके पार चला जाए… वापस नहीं आता।
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“क्योंकि कुछ दरवाज़े… सिर्फ़ खुलने के लिए नहीं होते।”


