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“अहंकार का उपहार”|The gift of ego

Posted on September 17, 2025 by My Hindi Stories

Buddha seated peacefully under a Bodhi tree as a wealthy merchant offers lavish gifts in a serene monastery courtyard, highlighting the contrast between humility and pride

एक बार की बात है…

महात्मा बुद्ध एक शांत, साधारण स्थान पर अपने शिष्यों के साथ ध्यानरत थे। उसी समय नगर के प्रसिद्ध धनकुबेर सेठ रतनचंद दर्शन को पधारे। उनका आगमन किसी राजा की सवारी से कम न था। साथ में नौकर-चाकरों की कतारें, चमकते उपहारों के ढेर और सोने-चांदी से जड़े वस्त्रों का भव्य प्रदर्शन।

भीड़ में फुसफुसाहट शुरू हो गई –
“देखो-देखो, सेठ जी कितनी भेंटें लाए हैं। सच में धन का कोई मुकाबला नहीं!”

सेठ ने आगे बढ़कर महात्मा बुद्ध को प्रणाम किया और मुस्कुराते हुए बोले –
“प्रभु, यह सब आपकी सेवा में अर्पित है। नगर के कई चिकित्सालय, विद्यालय, अनाथालय… सब मेरे ही दान से बने हैं। और जिस सिंहासन पर आप विराजमान हैं, वह भी मेरी ही भेंट है।”

बुद्ध शांत थे… उनके चेहरे पर ना कोई उत्साह, ना कोई आश्चर्य। बस एक गहरी मुस्कान।

थोड़ी देर बाद सेठ ने विदा लेने की आज्ञा मांगी।

बुद्ध बोले:
“जो कुछ साथ लाए थे, वह यहीं छोड़ कर जाओ।”

सेठ चौंके।
“प्रभु, मैंने तो सब कुछ अर्पण कर दिया है – भेंटें, दान, सेवा… और क्या?”

बुद्ध ने शांत स्वर में उत्तर दिया:
“नहीं रतनचंद… तुम जो सबसे भारी वस्तु साथ लाए थे, उसे छोड़ना भूल गए।”
“तुम्हारा अहंकार…”

“तुमने धन तो दिया, पर साथ ही उसका बखान भी लाए। तुम्हारा मन कह रहा था – ‘देखो, मैंने क्या-क्या किया है!’ यही तुम्हारा बोझ है। यही तुम्हारा सच्चा ‘उपहार’ हो सकता है — अगर तुम उसे यहीं छोड़ जाओ। बाकी सब मेरे किसी काम का नहीं।”सेठ रतनचंद स्तब्ध रह गए। शब्द खो चुके थे, पर आँखें बोल उठीं।
वो भरे गले से बुद्ध के चरणों में झुक गए।
उनका सिर अब गर्व से नहीं, विनम्रता से झुका था।
भीतर का अहंकार पिघलकर अश्रुओं में बह गया।

सीख/ Moral:

दान करना सरल है, पर अहंकार का त्याग सबसे बड़ा दान है।
जो सच्चा “उपहार” है, वह बाहर की चीज़ नहीं — भीतर की शुद्धता है।

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